मांसाहार ___ ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभाव से बचने के लिये १५६ देशों के प्रतिनिधि जापान के क्यूटो शहर में जुटे थे। इन सारे देशों के वैज्ञानिक भी आये, और उन्हें जिम्मेदारी दी गयी कि वे ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने के कारणों को बतायें, और इसे कैसे कम किया जा सकता है इसे भी बतायें। डा. आर.के.पचौरी को वैज्ञानिकों का अध यक्ष बनाया गया। सभी देश के वैज्ञानिकों के सहयोग से जो एकजुट रिपोर्ट दी गयी उस क्यूटो प्रोटोकाल रिपोर्ट के अनुसार १०० वर्षों में विश्व का तापमान अभी २ डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ा है और अगले ५० वर्षों में २०५० तक यह ४ डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ जायेगा तब समुद्र का सतह १४ इंच ऊपर हो सकता है। तब समुद्रतटीय दो लाख गाँव समुद्र में डूब जायेंगे, जिसमें भारत के २१ राज्यों कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, बंगाल, उड़ीसा, मुंबई, आंध्र प्रदेश गोवा आदि के गाँव भी होंगे। जो देश अभी ही समुद्र तल से नीचे हैं जैसे हालैंण्ड की नीदरलैंड आदि उनका तो अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। वैश्विक गर्मी बढ़नेसे उत्तरी व का बर्फ पिघलेगा, भारत में हिमालय के ग्लैशियर पिघलेंगे तो नदियों में पानी बढ़ेगा और सारी नदियाँ जब समुद्र में मिलेंगी तो समुद्र का जल सतह ऊँचा होगाइससे हजारों समुद्र तटीय शहर का मानव जीवन गंभीर संकट में होगा। इतना ही नहीं इससे मौसम चक्र बिगड़ेगा फसलों की बर्बादी होगी, भूकम्प, बाढ़, सूखा, आँधी से पूरी व्यवस्था तहस नहस होगी क्योकि फसलों के यि मौसम का अनुकूल होना बहुत जरूरी है। आर.के. पचौरी की रिपोर्ट बताती है वैश्विक गर्मी का कारण है वैश्विक प्रदूषण और वैश्विक प्रदूषण का कारण है बदलती आधुनिक जीवन शैली। वैश्विक गर्मी बढ़ने के लिए २५ प्रतिशत जिम्मेदार है मांसाहार, १८ प्रतिशत जिम्मेदार है गाड़ियों से फालतू का यातायात और ३२ प्रतिशत अनावश्यक औद्योगिक उत्पादन, शेष गैर जरूरी विलासिता के संसाधन जैसे रेफ्रिजरेटर, एयरकंडीशनर, आदि। अगर अनावश्यक उत्पादन और मांसाहार पर रोक लग जाय तो ६० प्रतिशत प्रदूषण बंद हो जायेगा और इससे वैश्विक गर्मी तथा समुद्र का जल स्तर, भूख से मरने की संख्या, दैवीय प्रकोप, बाढ़ सूखा आदि बन्द हो जायेंगे, जंगलों की कटान रुकेगी, पशुओं की हिंसा रुकेगी, मौसम चक्र सुधरेगा और १८६ गरीब देश गरीबी रेखा से ऊपर होंगे। आतंकवाद भी कम होंगे, हिंसाएँ भी रुकेंगी।
क्यूटो प्रोटोकाल के हवाले से राजीव दीक्षित जी बताते हैं वर्तमान में विश्व की कुल आबादी ६५० करोड़ है। कुल अनाज का ४० प्रतिशत आनाज कंपनियाँ मवेशियों को इसलिए खिलाती हैं कि उनका मांस बढ़े और अमेरिका में कुल अन्न उत्पादनका ७० प्रतिशत अनाज पशुओं को खिलाया जाता है। अगर मांस उत्पादन पर ताला लगा दिया जाय तो औसतन ५५ प्रतिशत अनाज जो पशुओं को कंपनियाँ मांस के लिये खिलाती हैं वह कुल अनाज १३०० करोड़ मानव आबादी के लिये पर्याप्त होगा और विश्व में एक भी आदमी भूख से नहीं मरेगा। १८६ गरीब देश यानी विकासशील देश को पर्याप्त भोजन और ऊर्जा मिलेगी तो सभी की कार्यक्षमता और स्वास्थ्य अनुकूल होंगे यानी उत्पादन अधिक होगा और पाँच वर्ष में सभी देश विकसित होंगे। सवाल कर सकते हैं कि फिर जानवर क्या खायेंगे ? राजीव जी बताते हैं कि गाय, बैल, भैंस, सुअर, सांड़, बकरे, बकरी, मुर्गे मुर्गी आदि जितने भी मांस के लिये काटे जाते हैं, वे सभी शाकाहारी हैं। गेहूँ की बाली आदमी खाता है और उसके नीचे का भाग (भूसा) पशु खाते हैं। धान की बाली आदमी तो धान का पुआल भूसी पशु खाते हैं। कृषि भूमि की घासें पशु खाते है। इस तरह पशुओं के भोजन की किल्लत नहीं होगी। जो दे की आबादी मांसाहार करती है उसके लिये पर्याप्त अन्न खाने को होगा और पशु आहार भी पर्याप्त होगा। पशु जीवित होंगे तो इनसे कृषि उन्नति होगी, कार्बनिक खाद मिलेगा, धरती की उत्पादन क्षमता बढ़ेगी और गाय, बकरी, भैंस से घी, दूध, दही मक्खन, मट्ठा पर्याप्त होगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ नेयह भी बताया है कि मात्र १६ अमीर देशों में विश्व के मांस उत्पादन का ६० प्रतिशत खपत होता है और १८६ गरीब देशों में ४० प्रतिशत मांस की खपत होती है। २१० देशों में कुल मांस उत्पादन २८ करोड ५० लाख मीट्रिक टन है और २०५० तक ४६ करोड़ ५० लाख मीट्रिक टन मांस उत्पादन का लक्ष्य निर्धारित किये हैं। २००८ की रिपोर्ट के अनुसार १० करोड ५० लाख बड़े मवेशण हर वर्ष काटे जाते हैं। हर वर्ष १६५ किलो मांस प्रति व्यक्ति अमेरिका में, ६५ किलो वार्षिक प्रति व्यक्ति चीन में, १३० किलो यूरोप में, ३.५ किलो प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति भारत में औसतन खाया जाता है। इस आँकड़े के आधार पर भारत धार्मिक शांति प्रिय और नैतिक राष्ट्र है अपेक्षकृत पश्चिमी राष्ट्रों से। भारत स्वाभिमान मांस उत्पादन को शून्य प्रतिशत करना चाहता है, जबकि पश्चिमी और १६ अमीर देश २०५० तक दोगुना मांस उत्पादन करना चाहते हैं। यही देवासुर संग्राम है। प्राकृतिक जीवनऔर मांस भक्षक आसुरी जीवन का संग्राम है। होता रहा है। देवता विजयी होते रहे हैं, होंगे भी। हर वर्ष २०० करोड़ भूख से, और हर रो ४० हजार लोग भूख से मरते हैं, अगर मांसाहारी देश १० प्रतिशत भी मांस खाना कम कर दें तो उससे हुए अन्न बचत से न मांसाहार कोई मरेगा, न अन्न के अभावमें कोई मरेगा और जीव हिंसा भी नहीं होगी। भूखे को भेजन देना और मरने वाले पशुओं को जीवन देना पुण्य का काम है। इसलिये इसे करना हर व्यक्ति का धर्म है।
मांसाहार और स्लाटर हाउस बंद होने से कई लाभ हैं। हवा, पानी, मिट्टी का प्रदूषण तो बंद होगा ही, जंगल का कटान भी बंद हो जायेगा। संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़े के अनुसार एक किलो मांस के लिये जहाँ ७० हजार लीटर पानी का खर्च होता है, इसकी तुलना में गेहूँ, चावल, दाल, मक्का, गन्ना बाजारा आदि खाद्यान्न प्रति किलो उत्पादन में जल अत्यंत कम खर्च होता है। सर्वाधिक पानी की जरूरत वाला धान चावल में भी प्रति किलो उत्पादनमें ३५०० लीटर से ५००० लीटर ही पानीलगता है। भारत में १४ करोड़ लोगों को पीने का पानी नहीं, पूरा जीवन महिलाओं को मीलों दूर से पानी लाने और भोजन बनाने में खपाना पड़ता है। अगर मांस उत्पादन बंद हो जाय तो २० करोड़ परिवारको जिंदगी भर पीने का पानी पास में मिलने लगेगा। अन्न उत्पादन में जितना पानी खर्च होता है उसका १० से १०० गुना अधिक पानी मांस उत्पादन में व्यय होता है। पशु सर्वाधि क पानी पीकर भी पूरे जीवन कम मोस देते हैं। अन्न उत्पादन हर वर्ष होता है, कई कई फसल और एक-एक फसल की सैकड़ो हजारों किस्में होती हैं। बदल-बदल कर भोजन करना स्वास्थ्य के लये भी अच्छा है। मांस के यातायात में अधिक पेट्रोल, डीजल खर्च होता है, पहले पशु लादकर स्लाटर हाउस पहुँचाये जाते हैं, फिर उनके मांस को एरोप्लेन से पश्चिमी देश भेजा जाता है। इन मांसों की पैकिंग के लिये लकड़ी और विशेष प्रकार के कागजों, पालिथिन की जरूरत होती है और इसके लिये हर समय जंगलों की कटान की जाती है। पेड़ पौधे धरती की नमी रखते हैं। फल, वायु प्रदूषण दूर करते हैं, तापमान बढ़ने से रोकते हैं। पेड़ सैकड़ों वर्ष जीकर अपने जीवन में प्रचुर आक्सीजन देते और कार्बन आक्साइड ग्रहण करते हैं,कितने ही जीवों का जीवन पेड़ों पर निर्भर होता है, पर मांस पैकिंग में पेड़ की कटान से, मिलने वाला लाभ सदा के लिये समाप्त हो जाता है। पेड़ नहीं तो पानी नहीं, पानी नहीं तो जीवन नहीं। पेड़ों के कारण ही मौसम चक्र समय से चलता है, पर पानी न होने से ठंड न पड़ने पर गर्मी नहीं होने पर फसल प्रभावित और इस क्षति की पूर्ति को उद्योग और सरकार नहीं कर सकती, क्योकि इसके पोषण और संवर्धन में स्वयं प्रकृति खड़ी रहती है। एक मांसाहारसे जितनी क्षति होती है, उतनी क्षति किसी से नहीं होती।
वैज्ञानिकों ने कई प्रयोगों और परीक्षणों से यह सिद्ध किया है हिंसा और आतंक, बीमारी और लूटपाट उन्हीं देशों, क्षेत्रों और परिवारों में पाया जाता है जो मांसाहारी हैं। भूकम्प भी उन्हीं मांसाहार देशों में आते हैं। ऋणात्मक सोच का कारण मांसाहार है। राजीव दीक्षित जी भौतिकी के वैज्ञानिक मदनमोहन के हवाले से बताते हैं हजारों वर्ग किलोमीटर जानवरों का बाड़ा बनाया जाता है। गर्भवती गायों को इसमें भूखों रखा जाता है जिसेस वे एनिमिक हो जाती हैं। ऐसा इसलिये किया जाता है कि सफेद मांस महँगा बिकता है, लाल मांस कम महँगा होता है। अमेरिका में ६० हजार हर दिन गाय काटनेका कानून है। भारत में १७ राज्यों में गाय संरक्षण कानून हैं फिर भी १४००० रोज पशु काटे जा रहे। पशुओ को एक के रहने की जगह में १०-१० पशु रखे जाते हैं। इससे पशु तनाव में रहते हैं। एक सुअर दूसरे की पूँछ काट डालता है। भूखे तनावग्रस्त जिंदा पशुओं पर ७० -१०० डिग्री गर्म पानी डाला जाता है। इससे उनका शरीर फूल जाता है। खाल उधेड़ी जाती है। खून के लिये गर्दन पर कट लगाया जाता है। तड़पा तड़पा कर एक-एक अंग अलग किया जाता है। उनकी चीखें वायुमंडल में गूंजती हैं। ऐसे नकारात्मक मांस को खाने वाले ही मानव हिंसक होते हैं।
पशु शाकवेभ के कारण ही भूकम्प, प्राकृतिक आपदा, असंतुलन, रोग तथा लूट और हिंसक बढ़ रहे हैं। जायके लिये २४ घंटे के बछड़े बछड़ी की हत्या कर उनकेमांस का हेम्बर्गर बनाया जाता है, इसे ही बर्गर कहते हैं। गायें अपने बछड़े को ले जाते समय पागल की तरह कई-कई दिनों तक खोजती टक्कर मारती रोती हैं और अंत में गाय को भी काट दिया जाता है। कहावत है जैसा खाओ अन्न, वैसा होने मन। ऐसे ही गोकसी के देश में ऐसे लोगों के परिवारों में अकाल मौत हुई आत्माएँ जन्म लेती हैं और हिंसा का सिलसिला चलता रहता है। ऐसे ही लोगों में परीक्षण के बाद चिकित्सक बताते हैं २३ गुना कैंसर पाया जाता है शाकाहारी की तुलना में। डायबिटीज, जोड़ों के दर्द, हार्ट अटैक, किडनी के रोग, मांसाहारों में अधिक होते हैं। ऐसे देशों मे अमीरी है लूट और हिंसा के कारण पर शांति नहीं है, मानसिक अवसाद अधिक है। स्वीडन सबसे अमीर देश है, वहाँ की सड़कें सबसे अच्छी हैं पर वहाँ सबसे अधिक पीठ दर्द के मरीज हैं। पशु मांस में घुला स्ट्रेस हार्मोन्स उसे खाने वालों में भी बनता है। पश्चिमी देशों की मजबूरी है कि वे प्रोटीन के लिए मांस खाते हैं, पर भारतीयों के लिये तो इसेस ज्यादा प्रोटन मूंग की दाल, दूध आदि से मिल जाता है। कैल्शियम जूस में मिल जाता है। एक एकड़ की खेत में २२ लोगों को भोजन पूरे वर्ष मिलता है पर एक एकड़ की फसल खाकर जानवर की मांस का जो उत्पादन किया जाता है तो केवल दो लोग वर्ष भर भोजन कर पायेंगे। वो भी बीमार और असमाजिक तो क्यों नहीं भारत के स्लाटर हाउस पूर्णतः बंद हो रहे। भारत मांस कम खा रहा है पर पश्चिमी देशों को खिलाकर पैसा कमा रहा है और देश की जनता को भूखों मारा जा रहा है। कोरोना भी मांसाहारी देशों में ही विप्लव मचाये है। भारत दया, करुणा, क्षमा से पुरुषार्थी है पर पश्चिमी विकसित देश हिंसा के उद्योग से धनी, हिंसक भोजनसे धनी हैं। ट्रेड का अर्थ लूटपाट ही है, जिसे व्यापारके पर्याय के रूप में भारत में उपयोग हो रहा है। १८७० में ही महर्षि दयानन्द सरस्वती ने गोकरुणानिधि पुस्तक लिखी।
इसमें उन्होंने एक गाय अपने जीवन में मानव का कितना उपकार करती है, कितना लाभ देती है, कितना स्वस्थ रखती है और कितना कम खाकर भी आजीवन कृषि और कृषक सहचरी रहती है उसका मूल्यांकन किया है और यह भी बताया है कि गोकसी से कितनी दरिद्रता और कैसे आती है। आज इस बात को वैज्ञानिक परीक्षण के बाद बताया जा रहा है। बाबा रामदेव तो गाय को गोमूत्र के लिय पालने की सलाह देते हैं जिसको पीने से आदमी स्वस्थ रहता है, बीड़ी, शराब, सिगरेट, गुटका आदि नशा भी छूट जाता है और वे इसकी खरीद भी कर रहे हैं अच्छ कीमत देकर। जब भारत में ३० प्रतिशत आबादी ही मांसाहार करती है तो क्यों हजारों, लाखों की संख्या में स्लाटर हाउस चल रहे हैं। भारतीय कृषि का पतन गोवंश विनाश से हो रहा है। गाय को दूध देन तक तो हम माँ कहते हैं पर दूध बंद हो जाने पर उसे कसाईको बेच देते हैं, माँ को बेच देते हैं। इसकी पाश्चात्य सोच ने वृद्धाश्रम संस्कृति को प्रोत्साहित किया। महर्षि दयानंद की गोकरुणानिधि खोज और खरीद कर पढ़ें,बताये अनुसार चलें तो फिर से हजारों गोपाल गिरिवरधारी बन सकते हैं। बाजारू लूटपाट, हिंसा, मिलावट का अन्न खाना बंद करें, गोवंश वृद्धि से कृषि वृद्धि करें और सरकार इसमें सहयोग करे तो भारत फिर से सोने का देश हो जायेगा। अंग्रेजां के बनाये कानूनों को बंद और भारतीयों के हित के कानूनों का सृजन करें। पश्चिमी देशों के कुकर्मों को करो ना अगर ऐसा नहीं कियातो फिर व्यर्थ का क्या रोना ? यही आचरण कोरोना की अमोघ औषधि है।